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सोमवार, 10 सितंबर 2007

नौकरशाही की उदासीनता का नया नमूना: अमिताभ पाण्डेय

क्या किसी गाँव में शिक्षकों के रिक्त पद भरे जाने की मांग करना अपनाध है ? आवेदन, निवेदन, ज्ञापन के जरिये अपनी मांग प्रशासन के जिम्मेदार अफसरों तक पहुंचाने के बाद 15 दिनों तक समाधान का इंतजार करना पर्याप्त नहीं है? समाधान न होने के दिशा में पूर्व घोषणा के अनुसार पूर्व निर्धारित तिथि को अनोखे तरीके से ग्रामवासियों द्वारा विरोध प्रदर्शन कर अपनी मांग की पूर्ति के लिए प्रशासन का ध्यान आकृष्ट करना जुर्म है ?
ये वे महत्वपूर्ण सवाल हैं जो इन दिनों मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल झाबुआ जिले से राजधानी भोपाल तक शिक्षा के गलियारों में गूंज रहे हैं। झाबुआ जिले के पेटलावद विकासखण्ड के कालीघाटी गाँव के स्कूल में पर्याप्त शिक्षकों की मांग करने वाले ग्रामवासियों, कुछ समाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा शैक्षणिक व्यवस्था को लेकर विरोध प्रदर्शन का जो तरीका अपनाया गया है उससे प्रशासन की नाराजगी बढ़ गई है। हालात ऐसे बन गये हैं कि रिक्त पड़े शिक्षकों के पदों की कालीघाटी के स्कूल में पूर्ति करने से ज्यादा चिंता प्रशासन उन सामाजिक कार्यकर्ताओं, ग्रामवासियों की कर रहा है जिन्होंने विरोध प्रदर्शन किया है। शिक्षकों को पर्याप्त संख्या में पदस्थ करने पर ध्यान देने से अधिक तेजी से ध्यान विरोध प्रदर्शन करने वालों पर कानूनी कार्यवाही करने में दिया जा रहा है।
दरअसल उपरोक्त सवालों के जवाब तलाश करने से पहले उस घटना पर भी गौर करना जरूरी है जिसके कारण ये सवाल चर्चा में आएं। हुआयों कि ग्राम कालीघाटी के प्राथमिक व माध्यमिक स्कूल में गत कुछ वर्षो से पर्याप्त संख्या में शिक्षकों का अभाव है। आलम यह है कि प्राथमिक स्कूलों में 85 बच्चों पर 1 शिक्षक और माध्यमिक स्कूल के सभी बच्चों के लिए केवल 2 शिक्षक पदस्थ किये गये। शिक्षकों की कमी के कारण विद्यार्थियों की पढ़ाई पर हो रहे विपरीत असर की चिंता बच्चों के अभिभावकों को भी हुई। पालक शिक्षक संघ के पदाधिकारियों एवं गाँववालों ने इस पर विचार करने के लिए विगत 15 अगस्त 2007 को बैठक बुलाई जिसमें पंचायत के प्रतिनिधि भी शामिल हुए। इस बैठक में सर्व सम्मति से यह प्रस्ताव पारित किया गया कि प्रशासन को ज्ञापन देकर शिक्षक के सभी पद भरे जाने की मांग की जाये। ज्ञापन में यह भी उल्लेख था कि यदि 15 दिवस में उल्लेखनीय कार्यवाहीं नहीं हुइ तो कालीघाटी के स्कूलों में आसपास के जिन गाँवों के बच्चे पढ़ते है उनके अभिभावन भी कालीघाटी के गांववालों के साथ 30 अगस्त को विरोध प्रदर्शन करेगें। विरोध प्रदर्शन की घोषणा में यह साफ उल्लेख था कि शिक्षकों की पर्याप्त संख्या में नियुक्ति न होने पर गाँव के लोग कालीघाटी पंचायत के स्कूलों में ताला लगाकर विरोध प्रदर्शन करेगें। ऐसा हुआ भी अपनी मांग के प्रति अफसरों के उदासीन रवैये के कारण कालीघाटी गांव के लोगों ने 30 अगस्त को गांव के प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों मे ताला डाल दिया। ग्रामीणजनों ने जिनकी संख्या 600 से भी अधिक भी स्कूलों का ताला लगाकर एक सभा की। सभा में ग्रामीणजनों ने प्रशासन, अधिकारियों के उदासीन रवैये के प्रति नाराजगी जाहिर की। उन्होंने स्कूलों में तालाबंदी करने के बाद वहाँ पढ़ने पहुंचे 25 से ज्यादा बच्चों को एक देवस्थान के पास बड़े पेड़ पर चढ़ा दिया। बच्चे अपनी कापी किताब लेकर पेड़ की डालियों पर जा बैठके जिनमें कुछ बालिकाएं भी शामिल थी। इन बच्चों को पेड़ पर पढ़ाने का काम गांव के ही एक नौजवान ने लगभग दो घंटे तक किया। स्कूलों में तालाबंदी करके पेड़ पर स्कूल लगाने के पीछे उद्देश्य यह था कि अफसरों का ध्यान शिक्षकों की कमी की तरफ खींचा जाये।
इसी बीच जब पेड़ पर स्कूल लगाये जाने का समाचार चर्चा में आया तो प्रशासन ने 1 सितंबर को पास के ही एक गांव में पढ़ा रहे शिक्षकों में से दो शिक्षकों को कालीघाटी भेज दिया जबकि जरूरत ज्यादा शिक्षकों की थी। इस नई व्यवस्था से कालीघाटी के स्कूलों में पर्याप्त शिक्षक नहीं हो पाये तथा जिस गांव के 2 शिक्षकों को कालीघाटी भेजा गया था वहां के स्कूलों का हाल भी बिगड़ गया। कुल जमा बात यह कि एक स्कूल की व्यवस्था ठीक करने के लिए दूसरे स्कूल की व्यवस्था को भी प्रभावित किया गया। अब हाल यह है कि न तो कालीघाटी गांव में पर्याप्त शिक्षक है और न ही आसपास के अन्य गाँव के स्कूलों शिक्षक निर्धारित संख्या में है। पेटलावद ब्लॉक के ही कास्याखाली नामक गाँव में 46 बच्चों को एक शिक्षक के भरोसे छोड़ दिया गया है जबकि झकनावदा के समीप बिथड़ी नामक गाँव में तो 300 बच्चों को पढ़ाने का काम केवल एक ही शिक्षक द्वारा कराये जाने की जानकारी मिली हैं। इस स्थिती में बच्चें क्या पढ़ रहे होगें इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। पेटलावद विकासखण्ड शिक्षा अधिकारी भी स्वीकार करते है कि इस क्षेत्र में लगभग 234 शिक्षकों की कमी है फिर भी स्कूल जैसे तैसे चल रहे है।
शिक्षकों की कमी को पूरा करने के लिए कालीघाटी गांव के ग्रामीणों ने जो विरोध प्रदर्शन किया उससे अधिकारी इतने नाराज है कि कुछ प्रदर्शनकारियों पर कानूनी कार्यवाहीं किये जाने के संकेत मिले है। अधिकारी जितनी सक्रियता प्रदर्शनकारियों पर कार्यवाहीं करने में दिखा रहे है इतनी यदि उस समय ही दिखा देते जब कालीघाटी के लोगों ने अपनी मांगों के लिए ज्ञापन दिया था तब शायद विरोध प्रदर्शन की जरूरत ही नहीं होती। ग्रामीणजनों का ज्ञापन नौकरशाही की उदासीनता से 15 दिनों तक ठण्डे बस्ते में पड़ा रहा। इसके बाद भी उदासीनता के लिए दोषी अधिकारी पर कोई कार्यवाहीं हो सकेगी यह कहना मुश्किल है। अधिकारी अपनी उदासीनता के कारण्ा पैदा हुए विरोध प्रदर्शन के लिए गांववालों को ही जिम्मेदार ठहराये तो भला बताईये यह कौन सा न्याय है ? यदि मांग करने पर भी अधिकारी जनता से जुड़ी समस्याओं पर त्वरित कार्यवाहीं करने को तैयार न हो और विरोध प्रदर्शन करने पर गांववालों पर ही कानूनी कार्यवाही करने की तैयारी करे तो ऐसे में गांव का, बच्चों का, शिक्षा का विकास कैसे संभव होगा इसका अंदाज लगाना मुश्किल नहीं है।
अमिताभ पाण्डेय, स्वतंत्र पत्रकार, जी 10/3 साउथ टी.टी. नगर, सरदार पटेल स्कूल के सामने, भोपाल. मोबाईल : 9424466269

आदिवासी इलाकों में शिक्षा के इंतजाम : अमिताभ पाण्डेय

आदिवासियों के बच्चों को शिक्षित करने के लिए शिक्षा विभाग द्वारा जो कल्याणकारी कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं उनकी सच्चाई जानना है तो मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले के पेटलावद विकासखण्ड में कुछ गांवों का दौरा कर लीजिए। इन गांवों में कहीं स्कूल नहीं है जहां स्कूल है वहां पर्याप्त संख्या में शिक्षक नहीं है। शिक्षकों की कमी दूर करने की फिक्र अधिकारियों को नहीं है। शायद यहीं कारण है कि अपने बच्चों को शिक्षित करने की चिंता करने वाले आदिवासी अनोखे विरोध प्रदश्रन कर अफसरों का ध्यान शिक्षकों की कमी की ओर खींच रहे है।

आदिवासी इलाकों में शिक्षा के इंतजाम सुधारने के लिए ऐसे कुछ विरोध प्रदर्शन पिछले दिनों झाबुआ जिले के पेटलावद विकासखण्ड में देखे गये। गत 30 अगस्त को ग्राम कालीघाटी में शिक्षकों की कमी से त्रस्त गांव वालों ने पूर्व घोषणा के अनुसार स्कूलों में तालाबंदी की और बच्चों को एक पेड़ पर बिठाकर गांव के ही एक युवक ने दो घंटे तक पढ़ाया। पेड़ पर स्कूल लगाने के पीछे गांव वालों की मंशा सरकार का ध्यान शिक्षकों की कमी की ओर आकर्षित करने की थी। इसके लिए 15 अगस्त को कालीघाटी के ग्रामवासी प्रशासन को ज्ञापन भी दे चुके थे कि यदि 30 अगस्त तक गांव के प्राथमिक एवं माध्यमिक स्कूलों में पर्याप्त शिक्षकों की व्यवस्था नहीं की गई तो स्कूलों में ताला लगाकर प्रदर्शन किया जायेगा। ज्ञापन के माध्यम से अपनी मांग ऊपर पहुँचाने के बाद भी निर्धारित अवधि में शिक्षकों के रिक्त पद नहीं भरे गये तो ग्रामवासियों को स्कूल में ताला लगाने पर मजबूर होना पड़ा। जानकारी मिली है कि विरोध प्रदर्शन के बाद भी कालीघाटी में पर्याप्त शिक्षकों को पदस्थ नहीं किया जा सका है तथा स्कूलों में तालाबंदी कर पेड़ पर स्कूल लगाने में सहयोगी कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं, गांववालों के विरूध्द कार्यवाहीं की जा रही है। माना जा सकता है कि अधिकारियों को शिक्षकों के पद भरने से ज्यादा चिंता विरोध प्रदर्शन करने वालों को सबक सिखाने की है।

आदिवासी इलाकों में शिक्षा के इंतजाम का हाल बताने वाली दूसरी दिलचस्प घटना भी पेटलावद विकासखण्ड की ही है। यह घटना भी यह दिखाने के लिए काफी हैं कि है कि आदिवासी इलाकों में शिक्षा के इंतजाम क्या हैं ? पता चला है कि पेटलावद विकासखण्ड अंतर्गत ''माता फलिए'' नामक गांव में शिक्षकों की कमी से जूझ रहे गाँववालों ने शिक्षक दिवस पर मिट्टी के गुरूजी बनाकर उनकी पूजा की। इस पूजा के माध्यम से गाँववाले शिक्षकों की कमी की ओर प्रशासन का ध्यान आकर्षित करना चाहते है। बताया जाता है कि माता फलिए के प्राथमिक स्कूल में केवल एक शिक्षक है जो कि लगभग 100 बच्चों को पढ़ा रहा हैं। बार-बार शिक्षकों की मांग करने के बाद भी माता फलिए में पर्याप्त संख्या में शिक्षकों को पदस्थ नहीं किया जा सका है। शिक्षा के इंतजामों की बदहाली का आलम यह है कि माता फलिये के आसपास लगभग दो किलोमीटर तक मिंडिल स्कूल नहीं है। गाँव से दूर पोखा नामक जगह पर जो मिडिल स्कूल है वहाँ पहुँचने के लिए बच्चों को रास्ते के नदी नाले पार करना पड़ता है जो कि बारिश में खतरनाक हो सकता है। शायद यही कारण है कि माता फलिए के आसपास रहने वाले आदिवासी अपने बच्चों को मिडिल स्कूल में भेजना नहीं चाहते है। प्राथमिक शिक्षा के बाद ही अधिकांश बच्चों की पढ़ाई बंद हो जाती है। ग्राम पंचायत पोखा के सरपंच हुरसिंह बारिया की बात पर यकीन करें तो पोखा ग्राम पंचायत के पाँव फलियों के लिए स्कूल खोलने का प्रस्ताव लगभग दो माह पूव विकासखण्ड शिक्षा अधिकारी को भेजा गया था जिस पर आज तक कोई सुनवाई नहीं हुई।

पेटलावद विकासखण्ड में शिक्षा की व्यवस्था (?)के कुछ और भी उदाहरण देखे जा सकते हैं। मिसाल के तौर पर ग्राम कास्याखाली की प्राथमिक शाला में 46 बच्चों को एक शिक्षक पढ़ाते है तो ग्राम गरवाड़ी में 42 बच्चों के लिए एक ही शिक्षक है। ग्राम बिथड़ी में तो 200 से ज्यादा बच्चों को केवल एक शिक्षक के भरोसे छोड़ दिया गया है। इन प्राथमिक स्कूलों में पदस्थ एकमात्र शिक्षक मध्यान्ह भोजन सहित अन्य गैर शैक्षणिक कार्यो को करने के बाद बच्चों को पढ़ाने के लिए कितना समय निकाल पाता होगा इसका अंदाज आसानी से लगाया जा सकता है। पेटलावद के विकासखण्ड शिक्षा अधिकारी भी स्कूलों में शिक्षकों की कमी को स्वीकार करते हैं लेकिन रिक्त पदों पर पर्याप्त शिक्षक कब तक पदस्थ हो जायेगें इस सवाल का जवाद देने को कोई तैयार नहीं है। परिणाम यह है कि गांवालों को शिक्षक के पद भरने की मांग करते हुए नये नये ढंग से विरोध प्रदर्शन कर सरकार का ध्यान आकर्षित करना पड़ रहा है। मजे की बात यह है कि इस सबके बावजूद शिक्षकों की कमी की समस्या का कोई समाधान नहीं निकल पा रहा लेकिन आदिवासी इलाकों में शिक्षा के बेहतर इंतजाम वाले दावे किये जा रहे है। सरकारी दावे और मैदानी सच्चाई के बीच का अंतर कब खत्म होग कहना मुश्किल है।
अमिताभ पाण्डेय, स्वतंत्र पत्रकार, जी 10/3 साउथ टी.टी. नगर, सरदार पटेल स्कूल के सामने, भोपाल. मोबाईल : 9424466269

शनिवार, 18 अगस्त 2007

खैरलांजी दलित हत्याकांड से उपजे सवाल

इन साठ वर्षों में देश में ढेरों दलित हत्याकांड हुए, लेकिन हत्यारों और हमलावरों को सजा नहीं मिली। लोकतंत्र के न्यायालय यह तक मानने को तैयार नहीं होते हैं कि सवर्णों का गिरोह हमला करने के लिए दलित बस्ती तक पैदल गया होगा। आखिर सीबीआई भी किसी दलित हत्याकांड में क्या जांच करेगी? ऐसे हत्याकांड़ों के कारण साफ दिखते आ रहे हैं। दलितों को बंदूक और रायफल के लाइसेंस देने की बात भी नई नहीं है। बिहार में जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद कर्पूरी ठाकुर ने दलितों को न केवल हथियारों के लाइसेंस देने की घोषणा की थी, बल्कि सरकारी खर्चे पर हथियार देने और उसे चलाने का प्रशिक्षण देने की भी अपनी योजना बताई थी। लेकिन वह कभी लागू नहीं हो सकी। जबकि भूपति और सवर्णों को दलितों और नक्सलवादियों से निपटने के लिए मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी दूबे ने हथियार प्रशिक्षण कैंप भी लगवाए और मुख्यमंत्री डा. जगन्नाथ मिश्र ने ऑल इंडिया रेडियो से आदेश देकर सवर्णों के दरवाजे तक अधिकारियों को हथियारों के लाइसेंस देने के लिए दौड़ाया। इसी परिप्रेक्ष्य में खैरलांजी हत्याकांड के दो महीने के बाद महाराष्ट्र के गृहमंत्री आर. आर. पाटिल द्वारा सीबीआई जांच और दलितों को सुरक्षा के लिए बंदूक-रायफल के लाइसेंस देने की घोषणा का कोई अर्थ नहीं है। ये महज खैरलांजी हत्याकांड के खिलाफ आंदोलनकारियों के गृहमंत्री के दफ्तर में घुसने और नागपुर, अमरावती एवं शोलापुर समेत सूबे में दलितों के जुझारू आंदोलन के दबाव से निकलने के बहाने हैं। महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री पाटिल के बयान को गौर से देखें तो केवल वे यह सूचना भर दे रहे हैं कि दलित भी देश के नागरिक होने के नाते अपने जान माल की सुरक्षा के लिए हथियारों के लाइसेंस ले सकते हैं। वे कोई नई नीति की घोषणा नहीं कर रहे हैं। दरअसल सरकार की घोषणा को मीडिया मसाले लगाकर बेचता है। महाराष्ट्र के खैरलांजी के हत्याकांड में हिन्दी मीडिया को कोई रोमांच नहीं दिखा। लेकिन दलितों को हथियार देने की घोषणा से उसके पूर्वाग्रह जागृत हो जाते हैं।
दलित हत्याकांड़ों पर सरकार और राजनीतिक पार्टियों की प्रतिक्रिया समय के मुताबिक होती है। शिव सेना और भाजपा ने इस हत्याकांड पर प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। मौजूदा राजनीति में फिलहाल महाराष्ट्र में यह संभव नहीं दिखता है कि वहां की सरकार दलितों की सुरक्षा के संदर्भ में कोई कड़ा फैसला लेने का साहस दिखा सगी खैरलांजी हत्याकांड के बाद दो महीने तक सरकार सक्रिय नहीं दिखी। यह तो पहली बात है। अब वह सक्रिय दिख रही है तो उसकी वजह दलितों का बढ़ता आंदोलन है और सरकारी तंत्र अपनी घोषणाओं से उस पर पानी डालने की कोशिश में लगा रहा। पहले आंदोलन को दबाने की भी हर संभव कोशिश की गई है। विरोधा को कानून एवं व्यवस्था की दृष्टि से खतरनाक बताने के इरादे से गृहमंत्री ने उसे नक्सलवाद से प्रभावित तक बताया था। दलित नेताओं की राजनीति और दलितों की सुरक्षा के मसले के बीच कोई रिश्ता नहीं रह गया है। दलित नेता कुछ घिसी पिटी मांगें कर देते हैं और कटघरे में खड़ी सरकार उन्हें तरजीह देकर आंदोलन को बिखराने की कोशिश में लग जाती है। दलित राजनीति यहां आकर जकड़ गई है।
राजनीति में इन दिनों किस तरह का दबाव है उसके एक पहलू को महाराष्ट्र से समझने की कोशिश की जा सकती है। महाराष्ट्र में पिछले विधानसभा चुनाव से पहले दलित परिवार के सुशील कुमार शिंदे को मुख्यमंत्री बनाकर भेजा गया था। वहां दलित समर्थक पार्टियां सक्रिय हो रहीं थी और उनका चुनाव पर प्रभाव की स्थिति स्पष्ट हो रही थी। लेकिन चुनाव परिणाम के आने के बाद जब राष्ट्रीय कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस सत्ताा में आईं तो कांग्रेस ने सुशील कुमार शिंदे को मुख्यमंत्री बनाने से इंकार कर दिया, जबकि दिल्ली और दूसरे राज्यों में कांग्रेस के दोबारा विधानसभा के चुनावों में जीत हासिल होने पर पुराने मुख्यमंत्रियों को ही सत्ता सौंपी गई। दरअसल हिन्दुत्व और नई आर्थिक नीति के चरम अवस्था ने एक उलट स्थिति यह पैदा कर दी है कि दो साझा पार्टियां खुद को ताकतवरों की पक्षधार दिखने की होड़ करें। महाराष्ट्र में जब राष्ट्रीय कांग्रेस दल ने पाटिल को अपना नेता बनाने का फैसला किया तो कांग्रेस की तरफ से विलासराव देखमुख फिर से मैदान में सबसे ज्यादा ताकतवर हो गए। राजनीति का यही पहलू खतरनाक रूप में सामने आ रहा है। इसने किसी भी स्तर पर अपेक्षाकृत कमजोर माने जाने वाले समाज के हिस्से की सुरक्षा और विकास की जिम्मेदारी से तंत्र को पूरी तरह से मुक्त कर दिया है। पहले भी वह मुक्त रहता था, लेकिन एक फिंजां में एक दबाव होता था। लेकिन अब तो उसका मुक्त होना इस रूप में विस्तारित हुआ है कि तंत्र हमले में ही शामिल हो जाता है। महाराष्ट्र की ही तरह हरियाणा में भी इसे देखा जा सकता है। वहां ओम प्रकाश चौटाला की पार्टी को हराने के बाद कांग्रेस जब सत्ताा में आई तो वह देश के कम से कम एक राज्य में दलित मुख्यमंत्री बना सकती थी। वहां की दलित आबादी भी तमिलनाडु के बराबर है। लेकिन उसने समाज के दबंग माने जाने वाली जाति जाट के बीच से ही मुख्यमंत्री का चुनाव किया। ओम प्रकाश चौटाला के हराए जाने के बाद भी कांग्रेस को यह डर सताता रहा कि कहीं जाट वोट उससे नाराज न हो जाए। हरियाणा में दलितों के खिलाफ झज्जर से लेकर गोहाना तक ढेर सारी घटनाएं बिखरी पड़ी हैं। इसमें जाति से जाट और विचार से हिन्दुत्ववादी दोनों थे। ओम प्रकाश चौटाला के कार्यकाल में झज्जर में हमलावर दलितों को दुलिना पुलिस चौकी में घंटों तक मारते रहे और गोहाना में मुख्यमंत्री हुड्डा के नेतृत्व वाले पुलिस तंत्र ने घंटों खड़े रहकर बाल्मीकि मुहल्ले को गैस सिलेंडर से उड़ाते ओर जलाते देखा। खैरलांजी पिछड़ी जाति बाहुल्य गांव है और हमलावर जाति को मराठा राजनीति के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है। यहां कतई यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए कि किसी दलित के मुख्यमंत्री होने भर से दलित हत्याकांड़ों में कमी हो सकती है। यह किसी भी जाति-समाज और विचार के दबाव की स्थिति को मापने भर के लिए उदाहरण के रूप में पेश किया जा रहा है। आखिर कांग्रेस को महाराष्ट्र और हरियाणा में ताकतवर समझे जाने वाली जाति सत्ताा के सारथी के लिए जरूरी क्यों लगती है? ताकतवर समाज की तरफ मुखातिब होने का अर्थ दबंगई के विचारों को हर स्तर पर बढ़ावा देने की नीति को स्वीकार करना होता है। 1990 के बाद सभी संसदीय पार्टियों ने दबंगों के साथ रहना अपनी अनिवार्य नीति के रूप में मान लिया है। सत्ता तंत्र का चरित्र साफ है। सवाल दलित राजनीति की तरफ भी है। महाराष्ट्र में राजनैतिक स्तर पर दलित उभार रहा है। उससे संसदीय राजनीति प्रभावित होती रही है। लेकिन इस नये दौर में वह स्थिति क्यों नहीं रही। क्या यह दलित राजनीति के विकास में कोई गंभीर चूक का संदेश है? या फिर दलित राजनीति को मुकम्मल मान लेने का दंभ है? दलित राजनीति संघर्ष के निरंतर प्रवाह से ही विकसित हो सकती है। संघर्ष सुरक्षा की व्यवस्था तभी कर सकता है, जब केवल संसदीय सत्ता पाने या पुराने ढांचे की सामाजिक सत्ता में छोटी-मोटी जगह हासिल करने की महत्वाकांक्षा का शिकार नहीं हो।